मंगलवार, 15 सितंबर 2015

सोमवार, 27 जुलाई 2015

इंसान ईश्वर को क्यों पुजता है ?





भूल जाते है इन्सान कि मृत्यु अटल है
हर कोई यहाँ मृत्यु की पंक्ति में खड़ा है
क्रमागत मृत्योंमुखी है किन्तु इतना धीरे
आभास नहीं होता ,यही तो आश्चर्य है | 

हाँ ,इंसान को पता नहीं लगता कि कब वह मृत्यु के द्वार पहुँच गया |जिंदगी मौज मस्ती में बिता देता है ,दूसरों को मरते देखकर भी नहीं सोचता कि उसे भी एक दिन इस दुनिया को छोड़कर जाना है  |
महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था,”दुनियाँ में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?”
युधिष्ठिर का जवाब भी यही था ,”लोग दुसरे को मरते हुए देखते है परन्तु यह नहीं सोचते कि उसे भी एक दिन मरना होगा और बेफिक्र होकर अपने जीवन में मस्त रहते हैं| यही सबसे बड़ा आश्चर्य है |“
यक्ष तो संतुष्ट हो गया था इस जवाब से ,किन्तु इंसान के मन में झांककर अगर देखें तो शायद यह उत्तर सही नहीं था | इंसान कभी भी मृत्यु के प्रति बेफिक्र नहीं रहा है | वह बेफिक्र होने का दिखावा करता है |भय को छुपाने की कोशिश करता है | उसे हर घडी मृत्यु का भय सताता है |  मृत्यु की भय से उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिली | कभी यह दबा रहता है कभी उभर कर ऊपर आ जाता है तब उसके मन,प्राण ,शरीर में कम्पन उत्पन्न करता है | वह उस भय से बचने के लिए किसी की तलास करता है जो उसे मृत्यु के भय से बचा सके | वह किसकी तलास करता है ? कौन उसको मृत्यु के हाथ से बचा सकता है ? उसे नहीं पता | उस अनजान व्यक्ति को इंसान ने ईश्वर ,अल्लाह, गॉड के नाम से पुकारा | अगर मृत्यु नहीं होती तो इंसान ईश्वर ,अल्लाह, गॉड को याद नहीं करते,न उसको पूजते और न मंदिर,मस्जिद ,चर्च,गुरुद्वारा बनाते | यह मृत्यु का डर ही है जिसके कारण ईश्वर का अस्तित्व है | ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारा बनाये गये | वो इनसान जिसे मौत से डर नही लगता ,वह न मंदिर जायगा न भगवान को पुजेगा | जब तक मृत्यु का भय है तब तक ईश्वर की पूजा होती रहेगी और मंदिर मस्जिदे बनते रहेंगे | अत: यह भय ही है जो इंसान जो भगवान के शरण में जाने के लिए मजबूर कर देते हैं |
         मौत तो प्रत्यक्ष है ,परन्तु मौत से बचाने वाले भगवान अप्रत्यक्ष है , यह एक रहस्य है |इस रहस्य से जिस दिन पर्दा हट जायगा उस दिन मंदिर,मस्जिद जैसे देवस्थान का महत्व भी घट जायगा |  ईश्वर जब सामने होंगे तो मंदिर की जरुरत क्या रहेगी ? पण्डे ,पुजारी ,ज्योतिषों,मठाधीशों के धंधे बंद हो जायेंगे |
         मनुष्य में सोच है ,यही भय उत्पन्न करता है |पशु पक्षी में मनुष्य जैसा सोच नहीं है | इसीलिए वे हमेशा भयभीत नहीं रहते हैं | आपातकालीन खतरे का भय है ,प्राण बचाने के लिए छटपटाते है किन्तु यह क्षणिक है | मनुष्य सदा भयभीत रहते हैं | प्रश्न उठता है ,- आखिर यह भय क्यों है ? गीता में कहा गया है ,” जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है वैसे ही आत्मा पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करती है |”
इंसान इस बात को सुन लेता है, पढ़ लेता है, परतु उस पर पूरा आश्वस्त नहीं हो पाता है|  पुराना वस्त्र  त्याग कर नया वस्त्र धारण करने में उसे डर नहीं लगता क्योंकि नया वस्त्र के बारे में वह सब कुछ जानता है ,वह निश्चिन्त रहता है | किन्तु पुराना शरीर छोड़ने के बाद उसे नया शरीर मिलेगा या नहीं, इसके बारे में उसे कोई निश्चित जानकारी नहीं है | इस शरीर को छोड़ने के बाद वह कहाँ रहेगा ? कौनसा शरीर मिलेगा ? मिलेगा या नही मिलेगा ?  कुछ भी पता नहीं | ये सब अज्ञानता के अन्धकार में छुपा है और इस अन्धकार में उसे धकेल देती है मौत | इस अनिश्चितता  के कारण मृत्यु से इंसान को डर लगता है | यदि उसे मृत्यु के
पहले और बाद में होनेवाली हर घटना की जानकारी मिल जाय तो शायद वह ईश्वर को याद करना भी भूल जाय | हो सकता है उस समय भगवान् की अवधारणा बदल जाय |  हर हाल में मृत्यु का भय ही मनुष्य को भगवान के शरण में ले आता है |

कालीपद ‘प्रसाद’                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

बुधवार, 22 जुलाई 2015

मानव अस्तित्व खतरे में !





मानवविज्ञानी एवं वैज्ञानिकों का मत है - पृथ्वी की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद पृथ्वी में जीव की उत्पत्ति हुई |महुष्य की उत्पत्ति बहुत बाद करीब चालीश लाख साल बाद हुई वो भी होमो (Homo) के रूप में | परन्तु आधुनिक मनुष्य जिसे Homo Sapiens कहते हैं, उसकी उत्पत्ति करीब २००.००० वर्ष पहले हुई थी, परन्तु मनुष्य के शारीरिक,मानसिक और व्यवहारिक क्रमिक विकास ४०-५०,००० वर्ष पूर्व शुरू हुई | इतने लम्बे समय के बाद मनुष्य अपने आपको जीव में सर्वश्रेष्ट मानते है |यह सच भी है, लेकिन आज का मनुष्य का इतिहास इतना पुराना नहीं है | भारत को ही ले लिया जाय तो वैदिक काल से पहले का कोई प्रमाणित/विश्वसनीय इतिहास उपलब्ध नहीं है | इससे यही कहा जा सकता है कि भारत में आधुनिक मनुष्य का आगमन करीब ५००० साल पूर्व हुआ था |
रामायण, महाभारत में ज्ञान, विज्ञानं, आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, विमान आदि का उल्लेख है |प्रश्न उठता है क्या वास्तव में वे अस्त्र और विमान मौजूद थे या यह केवल रचनाकार की काल्पना है? क्या वाणों से आग निकलती थी? पानी गिरता था? हवा चलती थी? या अतिशयोक्ति है? इसके प्रबल समर्थकों का उत्तर होगा हाँ ये सब थे पर नष्ट हो गए| अगर उनकी बात मान ली जाय तो फिर प्रश्न उठता है कि कैसे नष्ट हो गए? इससे सम्बंधित ज्ञान की पुस्तकें कहाँ गई? इसके उत्तर में  समर्थक चौराहे पर खड़े नज़र आते हैं| कौन सा जवाब दें समझ में नहीं आता है| एक तरफ श्रीकृष्ण को भगवान मानते है और मानते हैं कि धर्म की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण ने महाभारत का युद्ध करवाया| दुसरे तरफ पूर्ण विकसित सभ्यता का विनाश का जिम्मेदार कृष्ण को मानते हैं| श्रीकृष्ण चाहते तो इस युध्द को रोक सकते थे किन्तु रोका नहीं| इसी युद्ध में मानव के साथ मानव इतिहास के सभी उपलब्धियाँ नष्ट हो गई| महाभारत के बाद नई सभ्यता की जन्म हुई| आज का मानव उसी सभ्यता का उपज है|
       कहते हैं,”इतिहास अपने आपको दोहराता है|“ आज विश्व की जो दशा है, परिस्थितियाँ जैसे बदल रही है, उससे लगता है मनुष्य की अस्तित्व ही खतरे में है| अहम्, प्रतिस्पर्धा, आणविक अस्त्रों का जाल जैसा फैलता जा रहा है, उसे देखकर यही लगता है कि संसार के सारे वुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक केवल आधुनिक सभ्यता नहीं, ईश्वर की सर्वोत्तम सृष्टि मानव जाति को भी पृथ्वी से निर्मूल करने में तुले हुए हैं| आज अगर मनुष्य की अस्तित्व मीट गयी तो फिर लाखों वर्ष लग जायेंगे पृथ्वी पर मानव सभ्यता विकास होने में| वैज्ञानिक अपना ज्ञान रचनात्मक कार्य में लगायें, ना कि परमाणु या जैविक अस्त्रों के निर्माण में| शक्तिशाली राष्ट्र विनम्रता दिखाएँ और अपनी शक्ति विश्व मानव कल्याणकारी काम में लगाएं| इस सभ्यता को एवं मानव जाति को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवद्धता दिखाए अन्यथा पृथ्वी एक दिन अपनी सृजन पर आँसू बहायगी|

कालीपद 'प्रसाद'

सोमवार, 22 जून 2015

अपूर्ण योग दिवस !

            २१ जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया |यह एक अच्छी शुरुयात है |इसके लिए आयोजक एवं इसमे भाग लेनेवाले सभी प्रतिभागी बधाई के पात्र हैं | 'योग' का अर्थ होता है 'जोड़ना" 'या "मिलाना"  अर्थात एक से अधिक वस्तुओं को एक दुसरे से संयुक्त करना ,उसमें एकरूपता लाना | ऋषि,मुनि , योगियों के लिए योग का अर्थ है- तन,मन को शांत कर आत्मा के साथ संरेखन कर परमात्मा तक पहुँचने के लिए प्रयत्न करना | अस्वस्थ शरीर में मन स्वस्थ नहीं हो सकता और अगर मन अस्वस्थ है तो ईश्वर के ध्यान में मन नहीं लगेगा | इसीलिए सबसे पहले शरीर को स्वस्थ व निरोगी बनाना अत्यन्त आवश्यक है | शरीर स्वस्थ होगा तो मन स्वस्थ होगा, तब परमात्मा के ध्यान में एकाग्रता आयगी | अत: योग का उद्येश्य है - तन,मन और आत्मा में अनुरूपता स्थापित करना |
             महर्षि पतंजलि के अनुसार योग का अर्थ "योगस्यचित्त वृत्तिनिरोध:" अर्थात योग मन के वृत्ति को रोकता है ,मन के भटकन पर नियंत्रण करता है |उन्होंने योग को आठ भागों में बांटा है जिसको अष्टांग योग कहते हैं | वे इस प्रकार हैं :- १.यम  २. नियम ३. आसन  ४. प्राणायाम  ५. प्रत्याहार  ६. धारणा ७.समाधि और ८. ध्यान |
            योग दिवस पर आयोजकों ने योग के केवल आसन और प्राणायाम पर ध्यान केन्द्रित किया है | इसके पहले यम और नियम आते हैं परन्तु इन पर ध्यान देना उचित नहीं समझा क्योंकि यम के अन्तर्गत "सत्य व अहिंसा का पालन , चोरी न करना ,आवश्यकता से अधिक चीजों का इकठ्ठा न करना " शामिल है | आज जग जाहिर है कि नेता न सत्य के मार्ग पर चलते हैं न अहिंसा का पालन करते हैं | इसके विपरीत वे दो समुदायों में हिंसा फैलाकर अपने वोटबैंक को पक्का करते हैं | मंत्री बड़े बड़े घपला कर सरकारी धन का गबन करते हैं ,दुसरे शब्दों में कहे तो चोरी करते हैं | बेनामी धंधों में माल इकठ्ठा करते हैं | ये सब योग के यम सिद्धांत के विपरीत हैं |इस दशा में यम का पालन कैसे कर सकते हैं ? अत; नेताओं ने यम पर न बोलना ही अपने हित में समझा और यम,नियम को छोड़कर सीधा आसन और प्राणायाम को योग के रूप में प्रस्तुत किया | योग के मूल सिद्धांत को छोड़कर केवल शारीरिक व्यायाम  को ही  योग का नाम दे दिया | यदि सही मायने में योग को अपनाना चाहते है तो योग के सभी आठ अंगों का पूरा पूरा पालन करना चाहिए | भ्रष्टाचार में डूबे देश के लिए यह उचित होगा कि मंत्री ,नेता ,सकारी व अ-सरकारी कर्मचारी पहले यम का पालन करने का शपथ लें और  तदनुरूप व्यावहार करे तभी योग दिवस मनाना सफल माना जायगा अन्यथा यह एक और दिखावा बनकर रह जायगा |

कालीपद "प्रसाद"

मंगलवार, 9 जून 2015

ईश्वर का स्व-रूप क्या है ?

                                     जितने लोग उतने ही सोच ,उतने ही रूप l इसीलिए कहा गया है ,"मुंडे मुंडे  मतिर्भिन्न "l  यह बात शत  प्रतिशत हिन्दू धर्म के लिए लागू होता है l हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देव देवियाँ हैं l इन तैंतीस कोटि देव देवियों की उत्पत्ति की कहानी शायद इसी सिद्धांत को प्रतिपादित करती है l उस समय धरती पर शायद तैंतीस कोटि लोग रहते थे और हर एक व्यक्ति ने भगवान का एक रूप की कल्पना किया होगा और उसकी  पूजा किया होगा l किसी ने भगवान् को पुरुष रूप में पूजा किया तो किसी ने स्त्री (देवी ) के रूप में l किसी की मान्यता में कोई बंदिश नहीं थी l इस प्रकार तैंतीस कोटि देव देवियों की उत्पत्ति हो गयी l चूँकि हिन्दू धर्म दुसरे धर्म की भांति प्रवर्तित धर्म नहीं है l किसी धर्म गुरु,महात्मा ,पैगम्बर या अवतारी पुरुष द्वारा शुरू नहीं किया गया है , यह सनातन काल से जीवन जीने की पद्धति हैl ईश्वर और ईश्वर  की आराधना के लिए सर्वमान्य कोई एक मत नहीं है जो  दुसरे धर्म में है l  इसीलिए इसे  धर्म न कहकर हिन्दुस्तानी जीवन पद्ध्यति  कहना  ठीक होगा l कोई बंदिश न होने के कारण लोग मन मानी  ढंग से ईश्वर की कल्पना की l किसी ने निराकार माना तो किसी ने साकार रूप में पूजा की l साकार रूप में भी एक रूपता नहीं है ,मानव  से लेकर बानर ,पशु,पक्षी ,साँप ,मछली और पेड़ पौधों के रूप में भी ईश्वर की पूजा की l इसके आगे इन सभी देव देवियों की अस्तित्व और महत्व को प्रतिपादित करने के लिए अनेको मन गड़ंत कहानियाँ लिखकर प्रचारित किया गया है किसी ने यह नहीं सोचा की साधारण मनुष्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा l साधारण व्यक्ति इन विविधताओं में फंस कर द्विविधा में पड  गए हैं, यह निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि किस रूप में भगवान् की पूजा करें l तैंतीस कोटि देव देवियों में किसकी पूजा करें और किसको छोड़े ? जिसकी पूजा नहीं करेंगे वो नाराज हो जायेंगे और हामारे परिवार पर दुःख का पहाड़ टूट  पड़ेगा l ऐसा किस्से कहानियों द्वारा  बाताया  गया है l धर्मभीरु जनता में यह अंध विश्वास का जाल फैला हुआ है l उन्हें कौन समझाय कि ईश्वर की कल्पना कल्याण कारी है ,विनाशकारी नहीं है l हलाकि पूजा से खुश होकर भगवान् ने प्रत्यक्ष रूप में न किसी का भला किया है न नाराज होकर किसी की नुकसान किया है l भावुकता में लोग किसी भी घटना को अपने विश्वास के अनुसार भगवान् की कृपा और दंड से जोड़ लेते हैं l 
                           इसी प्रकार साफ सफाई को लेकर भी लोगों में  अलग अलग धारना है l कुछ लोग कहते हैं  कि भगवान की पुजा साफ़ सुथरा होकर करना चाहिये  l इसीलिए वे नहा -धोकर नए वस्त्र पहनकर मंदिर मस्जिद जाते है l
                            परन्तु दुसरे लोगों का कहना है तन में तो हमेश गन्दगी भरी रहती है ,उसको पूर्ण रूप से साफ करना असंभव है l बाहरी सफाई तो हो जाती है परन्तु अन्दर की सफाई रह जाती है l
 इसीलिए तन जैसा भी हो, मन शुद्ध  होना चाहिए l मन में शुद्ध भक्ति भाव  होना चाहिए lमन में हिंसा ,द्वेष,ईर्ष्या ,घृणा ,,भेद-भाव नहीं होना चाहिए l सबके प्रति सम भाव होना चाहिए तभी ईश्वर खुश होते है l  
                           तीसरे प्रकार के लोग जिनमे ज्यादातर साधू संत होते हैं l वे "आत्मशुद्धि " की बात करते है अर्थात आत्मा की सफाई l अब उन साधू संतों को कौन समझाए  कि साधारण जन को तो अभी तक पता ही नहीं है कि आत्मा है क्या चीज और रहती है कहाँ l फिर उसकी सफाई कैसे करे ?
                           इन सब बातों से यही प्रतीत होती है कि ईश्वर दर्शन के मामले में इंसान उन छै अंधों जैसे हैं जो हाथी देखने चले थे और सब ने  हाथी का अलग अलग रूप  बताया l जिसने  पूंछ पकड़ा उसने हाथी को रस्सी जैसा समझा ,जिसने पैर पकड़ा ,उसने खम्भा जैसे समझा ,जिसने  कान पकड़ा ,उसने हाथी को सुपा जैसा समझा l इसी प्रकार बांकी तीनो ने भी हाथी को अलाग अलग रूप में वर्णन किया किन्तु  सबका वर्णन मिलाकर भी पूर्ण हाथी का स्वरुप सामने नहीं आया l अलग अलग धर्म के धर्मगुरू या स्वघोषित गुरु इन अन्धो की भांति अपनी अपनी कल्पना की घोड़ी को दौड़ा रहे हैं परन्तु ईश्वर के पूर्ण रूप का कल्पना नहीं कर पा रहे है l वास्तव में ईश्वर  का स्वरुप मनुष्य के कल्पनातीत  l एक चिंटी हाथी के शरीर पर चढ़कर भ्रमण तो कर सकता है परन्तु पूर्ण हाथी को अपनी आँखों से देख नहीं सकता वैसे ही इंसान इतना छोटा है और ईश्वर इतना महान हैं कि ईश्वर का समग्र रूप की कल्पना करना भी इंसान के लिए असंभव है | |


     कालीपद "प्रसाद "


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सोमवार, 1 जून 2015

अपूर्ण मकसद !



जिंदगी का मकसद क्या है ?
अनादि काल से
यह प्रश्न अनुत्तरित खड़ा है,
उतर किसी ने न जाना
न किसीने इसका उत्तर दिया l
क्या खाना ,सोना और
फिर मर जाना
यही  जीव की नियति है ?
पशु, पक्षी ,कीट, पतंग
नहीं है मस्तिष्क उनका उन्नत
उनमे नहीं उठते
जिज्ञासा का उच्च तरंग  l
किन्तु मनुष्य....
उन्नत मस्तिष्क का मालिक है
खाना-पीना,सोना ,मरना
उनके जीवन का उद्येश्य नहीं है ,
इसके आगे उनकी खोज करना है
जिसने उसे बनाया है l

इसे इबादत कहें
या ईश्वर आराधना
होगा नाम अनेक
उद्येश्य है उनका पता लगाना l
किन्तु सोचो , कौन हैं ईश्वर ?
क्या है रूप ,आकृति-प्रकृति
क्या है उनका ठिकाना ?
 आजतक किसी ने न जाना l

कोई कैसे करे इबादत ?
पूजा विधि का भी, नहीं कोई अंत
किन्तु कोई भी विधि नहीं है अचूक
शास्त्र भी है इसमें मूक l
हर विधि का निष्फल परिणाम निकलना
इंगित करता है जैसे,
“आँख मुंद कर अँधेरे में पत्थर फेंकना “l
हर पत्थर निशाना चुक गया
ईश्वर भी अँधेरे से बाहर नहीं आया
जीवन का मकसद उनका दर्शन
सदा अपूर्ण रह गया l


©  कालिपद “प्रसाद”

१.६.२०१५